सोमवार, मार्च 05, 2012

काव्य गोष्ठी रही सफल




     शोभना वेलफेयर सोसाइटी रजि. ने मार्च 2012 शोभना वेलफेयर सोसाइटी रजि. ने मार्च 2012 को होली के आगमन के उपलक्ष में ईस्ट ऑफ कैलाश (निकट इस्कॉन मंदिर) में एक काव्य गोष्ठी का आयोजन किया.

श्री नंद कुमार सब्बरबाल, श्री विनोद पाराशर, श्री राजेन्द्र कलकल, श्री बी.के.सिंह व श्री सुमित प्रताप सिंह इस गोष्ठी में उपस्थित कवि थे.


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मामला चिट्ठाकारों की अदालत में : भय तो नही लग रहा है आपको

'व्‍यंग्‍य का शून्‍यकाल' पुस्‍तक का विमोचन चित्र



अप्रैल 2011 में 'हिंदी ब्‍लॉगिंग : अभिव्‍यक्ति की नई क्रांति' पुस्‍तक के विमोचन और 'हिन्‍दी साहित्‍य निकेतन और परिकल्‍पना सम्‍मान' तथा 'नुक्‍कड़ सम्‍मान' समारोह धज्जियां उड़ाते हुए इस पोस्‍ट में अपनी दिव्‍यता का संपूर्ण भव्‍यता के साथ बखान किया था। आप http://raj-bhasha-hindi.blogspot.in/2011/05/blog-post_03.html इस पोस्‍ट को सारी टिप्‍पणियों के साथ पढ़ लीजिए और विचार कीजिए। 

इस विश्‍व पुस्‍तक मेले में ज्‍योतिपर्व प्रकाशन के नाम से अरुण चन्‍द्र राय ने अपनी धर्मपत्‍नी के नाम से प्रकाशन आरंभ किया है। जिसमें प्रकाशित पुस्‍तकों का मूल्‍य प्रति पुस्‍तक 99/- रुपये रखा है। 

1. विमोचन कार्यक्रम में शामिल आगंतुकों के लिए जल की व्‍यवस्‍था बोतलों के रूप में की तो गई थी परंतु आवश्‍यक होने पर ही उन्‍हें प्‍यासों को दिया जाना था परंतु कहीं से ऐसी जोरदार मांग न होने के कारण पानी की बोतलों की भरी पेटियां लौटा कर ले जाई गईं। 

2. कार्यक्रम में अवसर के उपयुक्‍त मिष्‍ठान्‍न इत्‍यादि की तो कौन कहे, चाय तक की व्‍यवस्‍था न करने का यह तर्क दिया गया कि ट्रेड फेयर अथारिटी ने इस बाबत मना कर दिया था जबकि अन्‍य समारोहों में खुलकर चाय, जलपान इत्‍यादि का वितरण हुआ। 

3. इस अवसर के चित्र व वीडियो लेखकों, प्रेस इत्‍यादि को इसलिए उपलब्‍ध नहीं कराए गए, ताकि इनके जरिए भी पैसा कमाया जा सके। इसकी पुष्टि बाद में मिले उस एसएमएस हुई जिसमें इस कार्यक्रम की चित्र और वीडियो की सीडी 600/- रुपये में बेचने की पेशकश की गई। 

4. अधिकतर लेखकों से जबकि एकमुश्‍त राशि पुस्‍तक प्रकाशन के एवज में ली गई थी फिर भी उन्‍हें चित्रों और वीडियो की सीडी का न दिया जाना, 'धंधा कमाई' का वाकई एक बेहतरीन उदाहरण है। 

5. दिल्‍ली और आसपास के के शहरों के अतिरिक्‍त मैनपुरी, जयपुर इत्‍यादि से भी हिन्‍दी चिट्ठाकार शामिल हुए परंतु उनके साथ भी इसी प्रकार का सर्वोत्‍तम व्‍यवहार किया गया। 

6. विमोचन कार्यक्रम के बाहर अनेक अनुरोध के बाद भी पुस्‍तक विक्रय की मेज इत्‍यादि पर बेचने की व्‍यवस्‍था इसलिए नहीं की गई ताकि कुछ प्रतियां नि:शुल्‍क (प्रेस, मीडिया एवं मित्रों को) वितरित न करनी पड़ें। 

7. प्रेस, मीडिया के लिए कोई प्रेस विज्ञप्ति इसलिए जारी नहीं गई क्‍योंकि उसमें जारी किए गए चित्र अखबारों में ही प्रकाशित हो जाते तो फिर कार्यक्रम के चित्र और वीडियो से कमाई करने का सपना बीच में ही टूट जाता। 

8. मैं तो अपनी अधिक विस्‍तारपूर्वक प्रतिक्रिया बाद में दूंगा। अभी तो आपके विचारों का बेसब्री से इंतजार है। इस पर अरुण चन्‍द्र राय की प्रतिक्रिया मिलने की उम्‍मीद नहीं है लेकिन उन्‍होंने इस कार्य को अंजाम देकर 'उम्‍मीद से अधिक' ही दिया है। इसलिए उनकी टिप्‍पणी का भी स्‍वागत है।

टिप्‍पणियां क्रम से नीचे हैं :-

अविनाश भाई क्यों कि आपने मैनपुरी का जिक्र किया है और सब जानते है मैनपुरी से केवल मैं वहाँ मौजूद था इस लिए मैं अपना नजरिया यहाँ रख रहा हूँ ... ना मैं कवि हूँ ना साहित्यकार इसलिए थोडा कम ही रखता हूँ ऐसे कार्यक्रमों से अपना सरोकार !

२७ को मैं वहाँ केवल जयदीप शेखर जी के कारण गया था ... ना आपके बुलावे पर ना अरुण जी के बुलावे पर ... इस से पहले भी काफी सारे कार्यक्रम हुए है पर मैं कभी भी कहीं नहीं गया क्यों कि मुझे इन सब का अंत विवाद में ही होता दिखा है हमेशा ... और अब भी यही हो रहा है !

आपने अपनी बात कहने से पहले एक पुरानी पोस्ट का जिक्र किया है ... माफ़ कीजियेगा पर मुझे जैसे अज्ञानी को इस पोस्ट पर दिए गया आपका हर तर्क अब केवल बदले की करवाई नज़र आ रहा है ... जो कम से कम आपको शोभा नहीं देती !

अगर आप अपनी बात बिना पुरानी बातों को उठाये हुए कहते तो बात कुछ और ही होती !

मेरे लिए २७ को सब से मिलना और पुस्तक के विमोचन पर जयदीप भाई के चहेरे की ख़ुशी सब से ज्यादा महत्वपूर्ण है इस लिए बाकी सब बातों को मैं नज़रंदाज़ कर भी दूं तो कोई गिला शिकवा नहीं !

मेरी बातें आपको बुरी लगी हो तो माफ़ कीजियेगा और अपना ख्याल रखें !

सादर
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उत्तर


  1. शिवम् भाई बदले की कार्रवाई अगर करनी होती तो मैं जब पुरानी पोस्‍ट लगाई गई थी। तभी उसके बदले में पोस्‍ट लिख सकता था लेकिन मैंने सिर्फ टिप्‍पणी देकर उसे भुला दिया था। पुराने जख्‍म कुरेदे सिर्फ इसलिए गए हैं क्‍योंकि अरुण चन्‍द्र राय ने अपनी पोस्‍ट में जिन मुद्दों पर अपना साफ दृष्टिकोण रखा था, उन पर उन्‍होंने खुद भी अमल नहीं किया है। यह सिर्फ उन्‍हें यह याद दिलाना भर है कि 'खुद मियां नसीहत, अपने पर पड़ी है तो बन गए हैं फजीहत'।
    पुरानी बातों को अगर न उठाया जाए तो इन पर कोई मामला इसलिए नहीं बनता है क्‍योंकि पहली बार तो चूक होती ही है। फिर आप पहले तो इतनी बड़ी बड़ी नसीहतें देते हैं और जब अपने पर पड़ती है तो पूरे दुकानदार बन जाते हैं। रिश्‍तों की, किसी के मान सम्‍मान की, अपनेपन की, किसी बात की कोई अहमियत आपके सामने पैसे के कारण बिल्‍कुल तुच्‍छ हो जाती है जो कि कतई गलत है।
    जबकि मैं सदा ऐसे विवादों से सदैव दूर ही रहता हूं और चाहता हूं कि आपसी बातचीत से इनका हल निकाल लिया जाना चाहिए। लेकिन यहां पर ऐसी कोई संभावना नहीं होने पर यह मामला हिन्‍दी चिट्ठाकारों और इंसान की अदालत में पेश है।
    आप जैसी साफगोई की ही, सबसे अपेक्षा है।

    1. शिवम् भाई बदले की कार्रवाई अगर करनी होती तो मैं जब पुरानी पोस्‍ट लगाई गई थी। तभी उसके बदले में पोस्‍ट लिख सकता था लेकिन मैंने सिर्फ टिप्‍पणी देकर उसे भुला दिया था। पुराने जख्‍म कुरेदे सिर्फ इसलिए गए हैं क्‍योंकि अरुण चन्‍द्र राय ने अपनी पोस्‍ट में जिन मुद्दों पर अपना साफ दृष्टिकोण रखा था, उन पर उन्‍होंने खुद भी अमल नहीं किया है। यह सिर्फ उन्‍हें यह याद दिलाना भर है कि 'खुद मियां नसीहत, अपने पर पड़ी है तो बन गए हैं फजीहत'।
      पुरानी बातों को अगर न उठाया जाए तो इन पर कोई मामला इसलिए नहीं बनता है क्‍योंकि पहली बार तो चूक होती ही है। फिर आप पहले तो इतनी बड़ी बड़ी नसीहतें देते हैं और जब अपने पर पड़ती है तो पूरे दुकानदार बन जाते हैं। रिश्‍तों की, किसी के मान सम्‍मान की, अपनेपन की, किसी बात की कोई अहमियत आपके सामने पैसे के कारण बिल्‍कुल तुच्‍छ हो जाती है जो कि कतई गलत है।
      जबकि मैं सदा ऐसे विवादों से सदैव दूर ही रहता हूं और चाहता हूं कि आपसी बातचीत से इनका हल निकाल लिया जाना चाहिए। लेकिन यहां पर ऐसी कोई संभावना नहीं होने पर यह मामला हिन्‍दी चिट्ठाकारों और इंसान की अदालत में पेश है।
      आप जैसी साफगोई की ही, सबसे अपेक्षा है।
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    2. बहुत बेहतरीन और प्रशंसनीय......
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    3. मैं उस कार्यक्रम में अविनाश जी के बुलावे पर गया था,अवकाश लेकर गया था पर वास्तव में कुछ बातें ऐसी हुईं जिन्होंने मुझे भी निराश किया.खाने-पीने की बद-इन्तजामी को लेकर मेरी कोई शिकायत नहीं है,पर 'व्यंग्य का शून्यकाल' चाहकर भी मैं न पा सका.न तो उसे विमोचन-कक्ष के पास दिया जा रहा था और न ही यह बताया गया कि कहाँ मिलेगी?

      लेखक-प्रकाशक सम्बन्ध यूँ ही चलते रहे हैं,चलते रहेंगे.ज़्यादा अच्छा हो कि प्रकाशन से पहले लिखित समझौता कर लिया जाए ताकि इस तरह की अप्रिय घटनाएँ न हो सकें.
      एक लेखक होने के नाते उसका इतना हक तो बनता ही है कि कुछ पुस्तकें उसे निःशुल्क वितरण के लिए दी जा सकें !
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      1. संतोष जी खेद है कि आपको प्रति नहीं मिल सकी. अन्य प्रकाशक के तरह मैं प्रतियाँ बेचने के लिए कार्यक्रम नहीं किया था.कई लोग मेरे स्टाल पर चल कर आये थे. किताब लेकर गए. मैं अपने स्टाल तक लोगों को लाना चाहता था. अविनाश जी को बताना चाहिए था स्टाल का पता. कार्यक्रम के हिस्सा वे भी थे. इतनी कम कीमत में किताब छापकर मैं अन्य कोई खर्च नहीं कर सकता, न पहली बार न भविष्य में. आप अविनाश जी से अवश्य पूछिए कि कितनी प्रतियाँ पहुची हैं उन तक निःशुल्क. वे मुझसे जबरदस्ती कर रहे हैं.
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      2. अरुणजी ,
        आपका मेल मिलने के बाद मैंने निशुल्क प्रतियों के बावत अविनाशजी से बात करी तिस पर उन्होंने यह जानकारी दी कि प्रतियाँ भेजने के तुरत बाद ९०/- के हिसाब से उन्हें भुगतान करने के लिए कहा गया.इस बात का उन्होंने दावा भी किया कि अगर अरुण जी इस तथ्य से मन करते हैं तो वे साबित कर देंगे !
        बहरहाल,मैं नहीं जानता कि आप दोनों में किस तरह से प्रकाशन-सम्बन्धी मुहायदा हुआ पर एक ब्लॉगर व लेखक होने के नाते यह भी चाहता हूँ कि लेखक और प्रकाशक के बीच इस तरह की कटुता से बचना चाहिए.
        हाँ ,एक बात और...अविनाश वाचस्पति एक ऐसा नाम तो हो ही चुका है कि उसे अपनी किताब छपवाने के लिए पैसे न देने पड़ें.शुरुआत में कुछ प्रतियों की बात थी ,जिन्हें प्रसार के लिए ही बाँटा जाना था,उनसे कितने हज़ार रूपये कमा लेते अविनाश जी ? बाद में तो आप इस पुस्तक से आर्थिक-लाभ भी उठा सकते थे अधिक प्रसार होने पर !
        यह मामला संवादहीनता का ज़्यादा लगता है.सम्बंधित पक्षों को थोड़ा संयम से काम लेना चाहिए !
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  • अविनाश जी के प्रश्न का उत्तर :
    इस विश्‍व पुस्‍तक मेले में ज्‍योतिपर्व प्रकाशन के नाम से अरुण चन्‍द्र राय ने अपनी धर्मपत्‍नी के नाम से प्रकाशन आरंभ किया है। जिसमें प्रकाशित पुस्‍तकों का मूल्‍य प्रति पुस्‍तक 99/- रुपये रखा है।

    पत्नी के नाम पर कंपनी का नाम रखकर मैंने क्या गुनाह कर लिया. अपनी पत्नी के नाम पर कंपनी का नाम रखा है. मेरे घर का नाम "ज्योतिपर्व" है. मेरी विज्ञापन एजेंसी है जिसका नाम "ज्योतिपर्ब मीडिया एंड पब्लिकेशन है . किताब का मूल्य ९९ रख कर भी कोई अपराध नहीं किया है... पाठक अविनाश जी से ज़रूर पूछें.
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  • 1. विमोचन कार्यक्रम में शामिल आगंतुकों के लिए जल की व्‍यवस्‍था बोतलों के रूप में की तो गई थी परंतु आवश्‍यक होने पर ही उन्‍हें प्‍यासों को दिया जाना था परंतु कहीं से ऐसी जोरदार मांग न होने के कारण पानी की बोतलों की भरी पेटियां लौटा कर ले जाई गईं।

    उत्तर : पानी की बोतल थी. प्यासों को दी गई. जिन्हें प्यास नहीं थी उन्हें नहीं दी गई. पेटियां आई और लौटा ली गईं. मितव्ययिता का एक उदहारण भर है. नया प्रकाशक यही कर सकता है. हमें अपने घर, समाज में भी ऐसा ही करना चाहिए.

    2. कार्यक्रम में अवसर के उपयुक्‍त मिष्‍ठान्‍न इत्‍यादि की तो कौन कहे, चाय तक की व्‍यवस्‍था न करने का यह तर्क दिया गया कि ट्रेड फेयर अथारिटी ने इस बाबत मना कर दिया था जबकि अन्‍य समारोहों में खुलकर चाय, जलपान इत्‍यादि का वितरण हुआ।

    उत्तर : मिष्टान मैं एफोर्ड नहीं कर सकता था. प्रकाशन के जगत में सुदामा हूं. सुदामा होने में क्या अपराध है. जब भी अविनाश जी घर पर आये हैं बिना "फीकी चाय" के कभी लौटने नहीं दिया हूं. मुकेश अम्बानी जी ने अपनी पत्नी को करोडो का विमान उपहार में दिया तो क्या अन्य पति आत्महत्या कर ले. आमंत्रण पत्र में कहीं भी जलपान का जिक्र नहीं था. हाँ वरिष्ठ कथाकार संजीव और वरिष्ट कवि मदन कश्यप के मौजूद होने की बात थी और वे थे. किसी अन्य छोटे प्रकाशक के मंच पर इतने प्रतिष्ठित रचनाकार उपस्थित नहीं थे. राजकमल आदि को छोड़ कर. अविनास जी कहिये क्या गलत हुआ इसमें. पूरे मेले में इतने कम टाइटल के साथ कोई अन्य प्रकाशक नहीं आया है. अविनाश जी यह कार्यक्रम आपका भी थे. आपके बड़े संपर्क भी हैं. मैंने आपको बता दिया था कि जलपान आदि की व्यवस्था नहीं हो सकेगी क्योंकि एन बी टी ने इज़ाज़त नहीं दी है. सब चोरी करें, नियम तोड़ें तो क्या मैं भी करने लागून. और मेरे पास पैसे नहीं थे कि मैं २०० लोगों को जलपान कराऊँ. कई बड़े साहित्यिक कार्यक्रम देखें हैं मैंने जिसमे चाय आदि कि व्यवस्था नहीं होती है. हिंदी साहित्य सदा ही इस मामले में गरीब रहा है. कोई मलाल नहीं है मुझे.

    3. इस अवसर के चित्र व वीडियो लेखकों, प्रेस इत्‍यादि को इसलिए उपलब्‍ध नहीं कराए गए, ताकि इनके जरिए भी पैसा कमाया जा सके। इसकी पुष्टि बाद में मिले उस एसएमएस हुई जिसमें इस कार्यक्रम की चित्र और वीडियो की सीडी 600/- रुपये में बेचने की पेशकश की गई।

    उत्तर : सही है कि चित्र वीडियो जारी नहीं किये गए हैं और उन्हें बेचा जा रहा है छः सौ रूपये में. छः सौ रूपये में दो डीवीडी आकर्षक रंगीन पैकेट और आवरण में जिसकी कीमत बाज़ार में हज़ार रूपये से कम नहीं होगी. यदि किसी को नहीं लेना हो नहीं ले. जबरदस्ती नहीं की है किसी से. किसी व्यवसाय में वाणिज्यिक दृष्टिकोण बुरा नहीं है. अविनाश जी ने भी अपने कैमरे में कैद की है समारोह. यह मौका मुझ से अधिक उनके लिए महत्वपूर्ण था क्योंकि उनकी यह पहली किताब थी. अभी तक उन्होंने अपनी वेबसाईट नुक्कड़ पर रिपोर्ट नहीं लगाईं है. वे भी लगा सकते थे. इंतजार किस बात का था.
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  • 4. अधिकतर लेखकों से जबकि एकमुश्‍त राशि पुस्‍तक प्रकाशन के एवज में ली गई थी फिर भी उन्‍हें चित्रों और वीडियो की सीडी का न दिया जाना, 'धंधा कमाई' का वाकई एक बेहतरीन उदाहरण है।

    उत्तर : अविनाश जी को कैसे पता. उन्होंने पुस्तक प्रकाशन के कितने पैसे दिए हैं उनको यहाँ बताना चाहिए. प्रकाशन एक धंधा कमाई है, इससे कैसे मुकर सकता हूं.

    5. दिल्‍ली और आसपास के के शहरों के अतिरिक्‍त मैनपुरी, जयपुर इत्‍यादि से भी हिन्‍दी चिट्ठाकार शामिल हुए परंतु उनके साथ भी इसी प्रकार का सर्वोत्‍तम व्‍यवहार किया गया।

    उत्तर : मैनपुरी से शिवम् जी आये थे. उनकी टिप्पणी ऊपर है. वे रात को आठ बजे तक साथ थे. जयपुर से कौन सज्जन आये थे ज्ञात नहीं मुझे.

    6. विमोचन कार्यक्रम के बाहर अनेक अनुरोध के बाद भी पुस्‍तक विक्रय की मेज इत्‍यादि पर बेचने की व्‍यवस्‍था इसलिए नहीं की गई ताकि कुछ प्रतियां नि:शुल्‍क (प्रेस, मीडिया एवं मित्रों को) वितरित न करनी पड़ें।

    उत्तर : निःशुल्क वितरण उद्देश नहीं है मेरा और न किसी प्रकाशक का. जो मिडिया के नाम पर आया उन्हें पूरी प्रतियाँ दी गईं. वार्ता, सहारा, दूरदर्शन और आकशवाणी आदि से लोग आये थे और उन्हें पूरे किताबों का सैट दिया गया था. कुछ इलेक्ट्रानिक मीडिया से भी लोग आये थे और उन्हें भी प्रतियाँ दी गईं थी. एक चैनल ने हमारे स्टार लेखक जयदीप शेखर का इंटरव्यू भी लिया. बाकी अविनाश जी के आग्रह पर श्री गिरजा शरण अग्रवाल जी आये थे (हिंदी साहित्य निकेतन वाले) उनको मैंने पूरी किताब दी और दरवाज़े तक छोड़ आया था. अविनाश जी को जरुर पूछना चाहिए श्री गिरिजा जी से.

    7. प्रेस, मीडिया के लिए कोई प्रेस विज्ञप्ति इसलिए जारी नहीं गई क्‍योंकि उसमें जारी किए गए चित्र अखबारों में ही प्रकाशित हो जाते तो फिर कार्यक्रम के चित्र और वीडियो से कमाई करने का सपना बीच में ही टूट जाता।

    उत्तर : ज्ञात हो कि मेरे सपने टूटे नहीं है. आगे भविष्य ना नहीं पता. इस तरह मित्र समुदाय लोग बददुआ देंगे तो बेचारे कोमल सपनो का क्या होगा... आशंकित नहीं हूं फिर भी. एक बैक्बेंचार रिपोर्ट के बाद प्रकाशन शुरू हुआ. अगले वर्ष क्या पता बड़े प्रकाशकों में शुमार हो मेरे प्रकाशन का नाम. दुआ करें.

    8. मैं तो अपनी अधिक विस्‍तारपूर्वक प्रतिक्रिया बाद में दूंगा। अभी तो आपके विचारों का बेसब्री से इंतजार है। इस पर अरुण चन्‍द्र राय की प्रतिक्रिया मिलने की उम्‍मीद नहीं है लेकिन उन्‍होंने इस कार्य को अंजाम देकर 'उम्‍मीद से अधिक' ही दिया है। इसलिए उनकी टिप्‍पणी का भी स्‍वागत है।

    उत्तर: अविनाश जी आप स्वयं चल कर आये थे इस नए प्रकाशक के पास. और कई बार आये. मैंने आपसे कोई पैसा नहीं लिया है. ये आप भी स्वीकार करेंगे. आपको यहाँ कहना होगा कि अरुण चन्द्र रॉय ने कोई पैसे नहीं लिए हैं व्यंग्य के शून्य काल के लिए. निःशुल्क प्रति देने की जो परंपरा है उस लिहाज़ से मैंने आपको प्रतियाँ दे दी हैं. लेकिन मेरे द्वारा प्रकाशित पुस्तक को आर्म ट्विस्टिंग के द्वारा कम कीमत पर लेकर स्वयं पूरी कीमत पर बेचने की इज़ाज़त नहीं दूंगा आपको. आप बड़े लेखक हैं. आपका बड़ा उपकार है कि अपनी पहली "किताब" मुझ जैसे नए प्रकाशक को देकर. फिर भी इस बदले मैं आपको प्रकाशन की छवि को धूमिल करने की इज़ाज़त नहीं दूंगा. आप क्षमा मांगे.इसी ब्लॉग पर.
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  • आज इस पोस्ट पर कमेन्ट देने के बाद मेरे पास कुछ फोन आये कि भाई यह क्या लिख आये ... कोई बताएगा मैंने क्या गलत लिखा ??
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  • यह पूरा बवाल बेकार का है कोई सार तत्व नहीं है ... सिर्फ और सिर्फ पुरानी रंजिश के चलते ब्लॉग जगत का माहौल खराब किया गया है ... साथ साथ निजी स्वार्थ भी शामिल है ... पर यह एक परम सत्य है कि इस पोस्ट की कोई भी जरुरत नहीं थी यह सब बातें आमने सामने बैठ कर भी हो सकती थी ... एक लेखक और प्रकाशक के बीच के विवाद को ब्लॉग जगत के विवाद का रूप देने की एक बेहूदी कोशिश है ... और कुछ नहीं ... रहा मेरे खुल कर कमेन्ट देने से किसी को दिक्कत होने का तो माफ़ कीजियेगा ... मैं बदलने वाला नहीं ... ४ नहीं ४० फोन आ जाएँ !
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    1. शिवम भाई...इस मामले को गरमाने के बजाय ठंडा करने का काम करें,आपसे ऐसी उम्मीद है.लेखक और प्रकाशक के बीच क्या बातें हुई हैं या किसकी गलती है यह हम-आप नहीं समझ सकते.बेहतर है कि अविनाशजी के सवालों का अरुणजी समुचित और शालीन लहजे में उत्तर दें.ब्लॉगिंग-जगत को इस मल्ल-युद्ध से बचाने में आपके सहयोग की ज़रूरत है.
      आशा है,हमारी बिन-मांगी सलाह को अन्यथा नहीं लेंगे.
      हटाएं
    2. मामले को कौन कितना गरम कर रहा है और कौन कितना ठंडा सब सामने है ... त्रिवेदी जी !
      हटाएं
  • अरुण जी, आप इजाजत देने के लिए इस प्रकार से मना कर रहे हैं कि मानो मेरा आवेदन आपके पास पेंडिंग पड़ा हो और आपने उस पर फैसला ले लिया हो। जबकि मैं कभी नहीं चाह सकता हूं कि किसी की भी छवि धूमिल हो। फिर आपने भी तो मेरे से बेकबेंचर वाली पोस्‍ट लगाकर किसी की भी छवि धूमिल करने की अनुमति नहीं मांगी थी।
    यह तो सबके अपने मन के भीतर की अच्‍छी बुरी प्रवृतियां हैं जो कि मौके बेमौके सिर उठाती रहती हैं। जिन्‍हें कोई सच्‍चे रूप में पेश करता है और कोई उनसे लाभ उठाना चाहता है। दुख है कि आपने दोनों ही बार इससे लाभान्वित होने का प्रयास किया है।
    मैं आपके पास अपनी पुस्‍तक के प्रकाशन की रिक्‍वेस्‍ट लेकर एक बार भी आपके पास नहीं गया। आपके फोन पर ही मैंने सहमति दे दी थी और अपनी व्‍यंग्‍य रचनाओं के प्रकाशन की अनुमति तो मैंने वैसे ही अपने ब्‍लॉग पर खोली हुई है कि कोई भी उन रचनाओं का ब्‍लॉग और पाठकों के हित में प्रकाशन कर सकता है। आपके पास मैं सिर्फ आपकी व्‍यस्‍तता के कारण पुस्‍तक के प्रूफ के संबंध में गया था और पाया था कि उसमें कई गलतियां रह गई थीं। जिन्‍हें मैंने अपने पास से प्रिन्ट लेकर सुधार कर खुद आपके पास जाकर दिया या अपने बेटे से इसलिए भिजवाया ताकि गलतियों के प्रकाशन से आपकी अथवा मेरी छवि खराब न होने पाए। इसमें और कोई आशय निहित नहीं था और न ही मैं पुस्‍तक के प्रकाशन को लेकर कोई उतावलेपन तक दीवाना था। हां, एक सामान्‍य खुशी जरूर पुस्‍तक के प्रकाशन से मिलती है, वह मुझे मिली और एक रचनाकार को अवश्‍य मिलती है।
    आपने एक बार भी यह सोचा कि आपकी पुरानी पोस्‍ट और इस पोस्‍ट पर की गई टिप्‍पणियों में कितना विरोधाभास है और यह विसंगतियां एकदम साफतौर पर सामने एक ही नजर में दिखाई दे रही हैं। उन्‍हें बतलाने में मैं अपना समय नष्‍ट नहीं करना चाहता और न ही इस पर और अधिक तर्क पेश करना चाहता हूं परंतु इससे दूसरों को गलतफहमी का संदेश ही जाएगा, इसलिए अपनी बात कहना जरूरी लगा है।
    किसके पास आज के व्‍यस्‍त समय में इतनी फुर्सत है कि जब तक अपना मामला न हो, वह किसी को भी यूं ही फोन करके जवाबतलबी करता रहे। या तो उसे इसमें सच लग रहा होगा या गलत। और सच जानिए इनमें से सिर्फ एक बात नहीं है, इसमें सब कुछ घुला मिला है, जो नहीं होना चाहिए।


    ... जारी
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  • अगर उनका जमीर उन्‍हें इस बात की इजाजत देता है कि ब्‍लॉग पर मेरे क्षमा मांगने से उनके व्‍यवसाय में बढ़ोतरी होगी तो मैं उनसे एक बार नहीं अनेक बार उनके पैर छूकर बिना गलती के भी क्षमा मांगने के लिए भी तैयार मिलूंगा। जिसे अपने अहंकार को बढ़ाना होता है, उसके लिए क्षमा मंगवाना ही एकमात्र उपाय है और वही उन्‍होंने किया है। पके फलों से लदा वृक्ष कभी यह उम्‍मीद नहीं रखता कि कोई उसे पत्‍थर न मारे, उसे पत्‍थर मारे जाएंगे तो तभी तो उनसे पत्‍थर मारने वाले को अभीष्‍ट की प्राप्ति होगी।
    मैंने कभी नुक्‍कड़ को नितांत अपना ब्‍लॉग समझा ही नहीं है, इसी कारण इसके व्‍यवस्‍थापकीय अधिकार भी ब्‍लॉग जगत में अनेक नेक चिट्ठाकारों के पास हैं। इस बात की आप संबंधित लेखकों से पुष्टि कर सकते हैं और एक बार व्‍यवस्‍थापकीय अधिकार देकर मैं उन्‍हें कभी वापिस भी नहीं लेता हूं। इस बात की पुष्टि आप नुक्‍कड़ से जुड़े सहयोगी लेखकों से कर सकते हैं।
    कल मैंने शिवम् जी को जरूर फोन किया था क्‍योंकि वे चैट पर उनके ब्‍लॉग की टिप्‍पणी का कारण जानने के लिए बहुत उत्‍सुक थे लेकिन मैंने उन्‍हें अपना फेवर करने के लिए एक बार भी नहीं कहा। उन्‍होंने पिछली पोस्‍ट के बदले स्‍वरूप कार्रवाई का जरूर जिक्र किया था और मैंने उसे एकदम से नकार दिया था परंतु उन्‍हें इससे संतुष्टि नहीं मिली और उन्‍होंने इस बात को भी टिप्‍पणी के रूप में तूल देने की निरर्थक कोशिश की है। मैंने उन्‍हें भी यही कहा था कि अगर ऐसा होता तो मैं तब ही अलग से पोस्‍ट लगाकर इसका प्रत्‍युत्‍तर दे चुका होता परंतु मैं इस और ऐसी विवादित पोस्‍टें पढ़ने में समय बरबाद इसलिए नहीं करता हूं क्‍योंकि इनके कोई नतीजे नहीं निकलते हैं और यह अधिकतर प्रायोजित ही होती हैं।

    ... जारी
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    1. अविनाश जी कल जब आपने फोन किया था तब भी मैंने आपको कहा था कि यह आप दोनों की आपसी बातें है आपस में निबटा लीजिये ... आपने भी माना था कि अरुण मुझे ५० किताब दे दे तो ठीक नहीं तो मैं बखिया उधेड़ दूंगा ... रहा सवाल ब्लॉग पर किये गए कमेन्ट का कारण जानने का तो ब्लॉग पोस्ट से अलग कमेन्ट का कारण तो पूछा ही जायेगा !
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    2. शिवम् जी, मैंने यही कहा था कि मुझे लागत मूल्‍य पर प्रतियां चाहिएं, न कि बाजार मूल्‍य पर। जब बाजार में 90 रुपये में पुस्‍तक वह बेच रहे हैं तो मुझे वह क्‍यों नहीं छूट देना चाह रहे थे, यह मैं नहीं समझ पाया। जबकि मैंने अपनी ओर से कहीं भी प्रचार/प्रसार भी कोई कमी नहीं रखी और न ही अन्‍य किसी प्रकार का सहयोग देने की, धन के सिवाय। फिर क्‍या आपको यह लग रहा है कि मैं उनसे लागत मूल्‍य पर पुस्‍तक लेकर उन पुस्‍तकों को बाजार में मूल्‍य लेकर बेचूंगा क्‍या आपको भी ऐसा ही लग रहा है। अब तक मेरी हुई मुलाकातों और बातों के अनुसार।
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  • अरुण जी ने तो पोस्‍ट लगने के पहले और बाद में बातचीत में यह भी स्‍वीकार किया है कि जब मैंने उन्‍हें कहा था कि मुझे 100 प्रतियां लागत मूल्‍य पर दे दी जाएं तो उन्‍होंने कहा था कि 90 रुपये से एक रुपया कम पर भी नहीं मिलेंगी और जिन नि:शुल्‍क प्रतियों का जिक्र वे कर रहे हैं कि ऐसी कोई प्रतियां उन्‍होंने मुझे नहीं दी हैं क्‍योंकि उनके स्‍टाल से कार्यक्रम के बाद जो 25 प्रतियां मुझे दी गई थीं, उनके भुगतान के लिए सिर्फ 10 या 15 मिनिट बाद ही मुझे मेरे मोबाइल पर संदेश मिल गया था। फिर कौन सी नि:शुल्‍क प्रतियों को देने का उल्‍लेख किया गया है। मैं नहीं समझ पा रहा हूं।
    मैंने अरुण जी से बेचने के लिए नहीं, अपने मीडिया एवं अन्‍य संपर्कों में वितरण के लिए 100 प्रतियां लागत मूल्‍य पर चाही थीं और उन्‍हें 50 रुपये प्रति पुस्‍तक के लिए कहा था जिससे उन्‍होंने एकदम साफ इंकार कर दिया था। बाद में उन्‍होंने यह भी कहा कि आपने यह बात पोस्‍ट में क्‍यों नहीं लिखी और जहां तक पुस्‍तक प्रकाशन के लिए एकमुश्‍त राशि की बात है, तो अरुण जी ने मुझे एक बार इशारा तो किया था परंतु मैंने कहा था कि मैं पुस्‍तक न छपवाने में यकीन रखता हूं लेकिन पैसे देकर छपवाने में यकीन नहीं रखता।
    जहां तक अरुण जी मेरी इस पुस्‍तक को मेरी पहली पुस्‍तक बतला रहे हैं तो वे पुस्‍तक के अंत में प्रकाशित मेरे परिचय को अगर पढ़ लें तो जान जाएंगे कि यह मेरी पहली पुस्‍तक है या पांचवीं। वैसे मैं अपना प्रत्‍येक रचना को सदा अपनी पहली रचना ही मानता हूं और इस बारे में संदर्भ के लिए सुमित प्रताप सिंह के सुमित के तड़के ब्‍लॉग पर आप मेरे दिए गए साक्षात्‍कार को पढ़ सकते हैं।
    जहां तक समाचार की बात है तो आप फेसबुक पर देख सकते हैं कि कितना प्रचार आपके प्रकाशन और पुस्‍तक का किया गया है। अब फेसबुक पर बाद में तो समाचार लगाए जाने से रहे। जितने समाचार व प्रचार किए गए हैं, सबमें ज्‍योतिपर्व प्रकाशन का लिंक अनिवार्य रूप से दिया गया है। यह सभी मित्रगण जानते हैं।

    ... जारी
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    1. जब आप खुद ही क़ुबूल रहे है कि आपकी बातचीत अरुण जी से हो रही है इन्हीं सब विवादों के बारे में तो फिर इस पोस्ट का क्या मतलब ????

      क्यों आप एक लेखक और एक प्रकाशक के बीच के विवाद को ब्लॉग जगत के विवाद का रूप देने की कोशिश में लगे हुए है ... बताएँगे ज़रा ???
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    2. क्‍योंकि कल अरुण जी ने 90 रुपये से एक रुपये कम मूल्‍य पर भी प्रतियां देने से साफ इंकार कर दिया था और बतलाया था कि 500 प्रतियों के प्रकाशन में 28000 रुपये की लागत आई है। मैंने उन्‍हें एक प्रति 50 रुपये देने के लिए हामी भी भरी थी पर वे राजी नहीं हुए।
      रही बात निजी तो ... शिवम् भाई आप बतलाएंगे कि आपसे मेरा परिचय कैसे हुआ, क्‍या हम लोग आपस में चिट्ठों के पहले एक दूसरे से परिचित थे, नहीं। क्‍या अरुण जी और मैं चिट्ठों में सक्रिय होने से पहले एक दूसरे से परिचित थे, नहीं। तो फिर इस पर हुए संवाद भी तो चिट्ठाकारों द्वारा ही सुलझाए जाएंगे कि इसके लिए भी कानून हस्‍तक्षेप करेगा। जबकि वह अभी तक तो अंतर्जाल जगत को ही नियंत्रित नहीं कर पाया है।
      इसे ब्‍लॉग जगत के विवाद के रूप में न लें तो सबको इन कड़वे अनुभवों का लाभ कैसे मिलेगा, क्‍या सब ठोकर खाकर ही सीखें, इसी नियति-प्रकृति को जारी रखना जरूरी है। अन्‍यों के अच्‍छे और बुरे अनुभवों से सीखना मानव के स्‍वभाव में होना चाहिए। जिनमें यह विकसित नहीं है, उनमें विकसित करने और जिनमें है, उन्‍हें इससे वंचित रखने का कोई उचित कारण मुझे तो नजर आता नहीं है। फिर मैं किसी को अपनी पोस्‍ट पर बुला कर पढ़ने और टिप्‍पणी देने के लिए तो आमंत्रण भी नहीं दे रहा हूं और न ही ऐसी कोई बाध्‍यता अरुण जी और आपके लिए भी है। सब मनमर्जी की अभिव्‍यक्ति के निराले खेल हैं, इनसे जो जो सीखना चाहें, वे सीख सकते हैं और हमें किसी को न तो जबरदस्‍ती सिखाना है और न सीखने से रोकना है। हां, यथासंभव मदद जरूर करनी है। इससे भी किसी को इंकार है क्‍या ?
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  • उनके 99 रुपये वाले अभियान के बारे में मैंने ही नुक्‍कड़ पर पोस्‍ट लगाई थी और अखबारों को भी इस बारे में ध्‍यान देने के लिए लिखा है। अगर मेरे मन में किंचित भी मैल होता तो शायद मैं इस प्रकार से उनके संबंध में सकारात्‍मक न लिखता और न ही अपनी पुस्‍तक प्रकाशन के लिए तैयार ही होता। जबकि मैंने लेखों के चयन व स्‍वीकृत करने के अधिकार भी उन्‍हें सौंप दिए थे। क्‍या वे इस बात से भी इंकार करेंगे कि मैंने उन्‍हें यह भी कहा है कि वे लेखक व प्रकाशकीय अनुबंध कर लें पर उन्‍होंने यह मेरे ऊपर छोड़ दिया और जबकि मुझे इस संबंध में अनुबंध के नियम इत्‍यादि की कोई जानकारी भी नहीं है।
    मुझसे मेरे कई मित्रो ने जानना चाहा था कि प्रकाशक आपको कितनी राशि व प्रतियां दे रहे हैं तो मैंने कहा कि इस बारे में मुझे अरुण तो ठीक लग रहे हैं, मेरे उपयोग भर के लिए प्रतियां वे दे ही देंगे, मुझे विश्‍वास है जबकि मेरा विश्‍वास गलत था। और फेसबुक पर या अन्‍य जगहों से जो ऑर्डर मिल रहे हैं, वे सब सार्वजनिक हैं और उनमें अरुण राय का टेलीफोन नंबर व बेवसाइट का लिंक दिया गया है।
    मैं अरुण जी से पिछले कई दिनों से कह रहा हूं कि वे अपनी वेबसाइट पर इस बाबत भी सूचना लगा दें कि ऑनलाईन पुस्‍तक कहां से और कितनी राशि में किस विधि से प्राप्‍त की जा सकती है, पर वे इस पर भी न जाने क्‍यों ध्‍यान नहीं दे रहे हैं। या डाक से मंगवाने पर कितना अतिरिक्‍त खर्च आएगा, पर वे अभी तक भी यह जानकारी नहीं दे पाए हैं।
    ये वही अरुण जी हैं जिन्‍होंने बेकबेंचर वाली अपनी पोस्‍ट में खाने की खूब तारीफ की थी और अपने कार्यक्रम में वे सुदामा बनकर सामने आ गए हैं जबकि सुदामा ने तो अपनी एकमात्र भुने चावलों की पोटली तक अपने मित्र को सौंप दी थी लेकिन इन आधुनिक तथाकथित सुदामा जी तो अपने साथ लाई गई पानी की बोतलें भी बचाकर ले गए। पुस्‍तकों और चित्रों की तो कौन कहे ?

    ... जारी
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  • उन्‍होंने बेकबेंचर वाली पोस्‍ट में मंच के द्वारा ब्‍लॉगरों के इस्‍तेमाल की तोहमत लगाई थी तो उन्‍होंने क्‍या इससे अलग कुछ किया है। मंच के संचालक महोदय को भी पुस्‍तक की प्रतियां नहीं मिली हैं। सत्‍कार की इससे बेहतर मिसाल भी कहीं नहीं मिल सकती। बेकबेंचर वाली पोस्‍ट में और भी कई ऐसे तथ्‍य हैं जिनका खुलकर विरोध उस समय अरुण जी ने किया था परंतु प्रकाशक बनते ही उन्‍होंने वे सब तरीके अपनाने में तनिक भी देर नहीं की। मुझे शक है कि जनसत्‍ता के फजल इमाम मल्लिक को भी उस वक्‍त पुस्‍तक की प्रति मिली हो, इसके लिए मैं उस समय से ही बहुत शर्मिन्‍दा हूं।
    अब मैं इस बारे में आज और अधिक कुछ लिखने के मूड में नहीं हूं। चाहता भी नहीं हूं कि इसे और तूल देकर प्रकाशक को पब्लिसिटी प्रदान की जाए जबकि उन्‍हें पब्लिसिटी मिलने से लाभ तो मेरी पुस्‍तकों को बिकने का ही होगा। अभी और कई ऐसी गोपनीय बातें हैं जिनका जिक्र मैं नहीं करना चाहता जब तक कि मुझे इस बारे में मजबूर नहीं किया जाएगा।
    मेरा तो अब भी अरुण जी से यही आग्रह है कि वे 100 प्रतियां मुझे लागत मूल्‍य पर दे दें लेकिन वह मूल्‍य जायज होना चाहिए न कि यूं ही अनाप शनाप यह समझकर बतला दिया जाए कि लेखक को प्रकाशन उद्योग के बारे में क्‍या जानकारी होगी, जबकि मैं उन्‍हें बतलाना चाहता हूं कि मैंने अपनी पहली पुस्‍तक सहयोगी आधार पर प्रकाशित करके निशुल्‍क वितरित की थी और उसकी लागत हार्ड जिल्‍द में 80 पेज में सिर्फ 6 रुपये आई थी जो कि अब बढ़कर 60 रुपये तो हो गई होगी लेकिन किसी भी दशा में 600 रुपये तो नहीं ही हुई होगी। मेरा प्रिंटिंग प्रेस का पुश्‍तैनी व्‍यवसाय रहा है जबकि लैटरप्रेस हुआ करते थे। फिर जब वे मुझे समझाते नजर आते हैं कि ‘व्‍यंग्‍य का शून्‍यकाल’ की 500 प्रतियों पर 28000 रुपये उनके स्‍टाफ के खर्च को न जोड़कर आया है, तो कौन विश्‍वास करेगा। आप कर सकते हैं शिवम् भाई लेकिन मैं नहीं और इस क्षेत्र का अन्‍य कोई जानकार ही।

    एक बार फिर आप सबसे आपका बहुमूल्‍य समय लेने के लिए मुझे खेद है, लेकिन यह जरूरी था।



    शेष फिर ... (जरूरत होने पर ही)
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  • और एक निवेदन सबसे कि इस संबंध में किसी को भी फोन करके (विशेष तौर पर शिवम् भाई को) परेशान अथवा मेरी फेवर करने के लिए किसी को भी कोई न कहें, क्‍योंकि मेरा मानना है कि सच्‍चाई को छिपाया तो जा सकता है लेकिन रोका या नष्‍ट नहीं किया जा सकता।

    समय सबसे बड़ा नियंता है। वही दूध का दही और दही से छाछ बनाएगा। तब सब प्रकृति के इस चक्र से हतप्रभ रह जाएंगे।
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    1. मेरा इतना ख्याल रखने के लिए आपका बहुत बहुत आभार ... एक उपकार ब्लॉग जगत पर भी कीजिये अपने निजी विवादों को ब्लॉग जगत पर मत थोपिए ... कई बातें है जो मैं भी कह सकता हूँ जो पहले से विवादित है इस लिए जाने दीजिये ! हाँ अपनी सेहत का ध्यान जरुर रखें !
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    2. मेरी सेहत कभी मेरे विचारों से ऊपर नहीं है। जहां मेरे सच्‍चे विचारों का हनन होता दिखाई देगा तो उससे पहले मैं मृत्‍यु का वरण करना पसंद करूंगा। मैं धन के मामले में कभी भी पशु नहीं हो सकता और न होना ही चाहूंगा। लेकिन इसका आशय यह न लगाया जाए कि किसी की नाजायज हरकतों और तोहमतों को भी बर्दाश्‍त कर लूंगा। मैं लेखक हूं और अपने विचारों के स्‍वाभिमान के लिए किसी भी अच्‍छे समन्‍वय को अपना सकता हूं लेकिन इनके साथ खिलवाड़ न मुझे पसंद है और न मैं चाहूंगा कि मेरे मित्र भी ऐसा करें। शत्रु तो खैर ... चलते ही सदैव उल्‍टी राह ही हैं।
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  • अविनाश जी पुस्तक विमोचन से पूर्व आप कई बार मिले... विमोचन के बाद आप कहीं नज़र नहीं आये..२७ के बाद से अब तक आपसे मुलाकात नहीं हुई है न कोई फ़ोन पर बात विशेष चर्चा. आपका एक बार फोन आया और आवेश में आप उखड गए. आपने जिस दर पर प्रतियाँ मांगी, मैंने मना कर दिया क्योंकि मैं अफ्फोर्ड नहीं कर सकता. इसमें कुछ भी गलत नहीं है. आपको निःशुल्क प्रतियाँ मिल गईं हैं. इस से अधिक मैं दे नहीं सकता. फेसबुक पर लाइक करने और प्रतियाँ बिकने में बहुत अंतर होता है. मैं नया प्रकाशक हूँ, एक दिन में इन्टरनेट,डाक आदि के बारे में मैं नहीं बता सकता. इस में समय लगेगा. मैंने आपसे कहा की आप आर्डर दीजिये मैं पुस्तक भिजवा दूंगा लेकिन आप इसमें भी कुछ कमाने की सोचने लगे. प्रकाशक का पैसा लगता है छपने में, स्टाल लगाने में, कार्यक्रम करने में..... ये सभी कास्टिंग किताब पर ही जोड़ी जाती है. इसमें कुछ गलत नहीं है. सीखना है मुझे. किन्तु जिस तरह आवेश में आकर और धीरज खोकर आपने यह पोस्ट लिखी है, आपके जैसे मैच्यूर व्यक्ति से उम्मीद नहीं थी. पुस्तक आउट आफ स्टोक हो गई है. क्षमा कीजिये अब मिल नहीं सकती. अगले संस्करण या पुनर्मुद्रण की प्रतीक्षा कीजिये.

    शिवम् जी सच का इतनी सख्ती से साथ देने के लिए आभार.
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    1. अगला संस्‍करण प्रकाशित करने अथवा पुनर्मुद्रण के लिए आदेश देने से पूर्व एक बार मित्रवत मिल अवश्‍य लीजिएगा क्‍योंकि इस तरह आवेश में आउट आफ स्‍टाक होने की घोषणा करना भी आपके धंधे पर बुरा असर ही डालेगा।
      और फिर जब यह पुस्‍तक पहले दिन एक प्रति नहीं बिकी तो पांचवें दिन सभी प्रतियां बिक गई हैं तो इसके लिए आप बधाई के सुपात्र हैं। निश्चित जानिए इसके लिए हिन्‍दी चिट्ठाकार जगत आपका अवश्‍य ही अभिनंदन करेगा और आपके प्रकाशन के द्वार पर अपनी पुस्‍तकें प्रकाशित करवाने के लिए लेखक पंक्तियों में कतार बांधे मिलेंगे।
      कमाने का आरोप मुझ पर लगाने से पहले आपको कम से कम अपने मित्र शिवम् जी से तो चर्चा कर ही लेनी चाहिए थी, आखिर उन्‍होंने अकेले आपको इतना सख्‍त समर्थन भी तो दिया है और इतना अधिकार तो उनका बनता ही है। खैर ... यह तो आपका आपसी मामला है, इसमें मेरी कोई भूमिका नहीं है लेकिन चिट्ठाकार भाई होने के नाते यह इतना आपसी भी नहीं है। यह विनम्रतापूर्वक जान लीजै।
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    2. अरुण जी, शिवम् भाई का तो इस तरह से आभार प्रकट कर रहे हैं मानो पुस्‍तक मेरी नहीं शिवम् जी की प्रकाशित हुई हो और सारी बातें उनसे तय हुई हों या इसे मिलीभगत की बेमिसाल मिसाल समझूं मैं अपनी अल्‍पबुद्धि के अनुसार, वैसे शिवम् भगवान पूरी सृष्टि की खबर रखते हैं और अंतर्जाल के इस युग में उन्‍हें सब खबर मेरे से पहले मिलती रही हों तो इसमें क्‍या आश्‍चर्य ? फिर वे तो सच के साथ ही रहेंगे, झूठ क्‍यों कहेंगे। गलतियां तो हम इंसानों से ही होती हैं, देवताओं से या तो गलतियां होती नहीं हैं या फिर पहले से इससे बचे हुए होते हैं। अब वे शिव भगवान हो या अरुण (विष्‍णु) भगवान। इतने देवों के होने पर मेरी क्‍या मजाल की मैं उनके बुने बनाए जाल-संजाल से बाहर निकल सकूं। लेकिन इनकी शरण में फंसना भी मेरी मानव देह के लिए श्रेयस्‍कर ही होगा, एक आम आदमी के तौर पर मेरा ऐसा मानना है।
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    3. अविनाशजी...यदि हो सके तो इस चर्चा को यहीं विराम दें क्योंकि कोई भी हल वाद-विवाद से निकलने वाला नहीं है.अब जब भी आगे से कोई प्रस्ताव हो तो सारी बातें लिखित में तय कर लें तो दोनों पक्षों के लिए ठीक होगा!
      सभी से शांति की अपील के साथ !
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    4. हा हा हा ... चलो यही सही ... जय हो आपकी अविनाश भाई ... जय हो ... GET WELL SOON!
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    5. त्रिवेदी जी सब शांत है केवल अविनाश भाई क्रोधित है ... ;-)
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    6. शिवम जी आपका आभार...यह सारा भार हमारे अपने ऊपर लेने के लिए.
      अविनाश का नाश नहीं हो सकता वह अविनाशी है और अरुण सूर्य है उसे प्रकाशन-जगत को प्रकाशित करने दो !
      धन्यवाद सभी का !
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    7. त्रिवेदी जी मत भूलिए मैं भी 'शिवम्' हूँ ... ले आइये जितना भी जहर है ... एक बार फिर कंठ नीला हो जाने दीजिये ... जय हो !
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    8. आप अपने कंठ को नीला मत होने दीजिए। अब तो मुझे उन विवादित बातों का भी इंतजार है, जिसे जाहिर करने की आपने इच्‍छा प्रकट की है। अरुण जी का मानना है कि उन सभी बातों के लिए भी यह एक उपयुक्‍त अवसर है और इसे आपको तो किसी भी कारण से गंवाना नहीं चाहिए।
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    9. GET WELL SOON ... अविनाश भाई ... ;-)
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  • अविनाश को जिस दिन क्रोध आएगा
    उस दिन वह व्‍यंग्‍य लिखना छोड़ देगा
    या यह भी हो सकता है
    और तीखे लिखना शुरू कर दे
    इतनी आसानी से छोड़ने वाला
    तो लगता नहीं, धुन का धनी है
    अनोखा मित्र मेरा
    मेरे से अधिक कौन समझ सकेगा
    उसे, वह खुद भी नहीं
    यही जानकर संतोष है
    और मैं ही नहीं
    मेरे जैसे बहुत सारे उनके हितचिंतक
    इसलिए मौन हैं
    क्‍योंकि अविनाश जी को किसी के
    अवलंब की जरूरत नहीं है
    वह सदा सच्‍चाई के साथ हैं
    सदा करते रहेंगे विसंगतियों की खिलाफत
    बन कर आए हैं बुराईयों के लिए कयामत
    उनको मिटाकर, करके समूल नाश ही
    संतोष के साथ, अरुणीय आभा में
    शिव का वरदान प्राप्‍त करेंगे।
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