रविवार, जनवरी 27, 2013

‘दोस्ती’ में है-साधारण और आम आदमी की कविता-जयप्रकाश मानस



मित्रों,
मेरा दूसरा कविता संग्रह’दोस्ती’ हाल ही में-’यश पब्लिकेशंस’ शाहदरा,दिल्ली से प्रकाशित हो रहा है। 4-10  फरवरी,2013 तक दिल्ली के प्रगति मैदान में होने जा रहे विश्व पुस्तक मेले में भी,प्रकाशक के बुक स्टाल पर यह पुस्तक उपलब्ध होगी। पुस्तक में शामिल की गयी कविताओं के संबंध में-वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रताप सहगल का आलेख आप पहले ही पढ चुके हैं। आज पढिये-साहित्यिक जगत में होने वाली हर हल-चल पर अपनी पैनी नजर रखने वाले,साहित्यिक ई-पत्रिका ’सर्जनगाथा’ के संपादक श्री जयप्रकाश मानस जी का ’दोस्ती’ पर यह आलेख।
साधारण और आम आदमी की कविता
आँखे!
आदमी की नहीं
उल्लू की थीं
जो दो इंच गहरे गड्ढों में
धँसी हुई थीं
उसके गाल
कशमीरी सेब की तरह नहीं
काबुली छुआरे की तरह
पिचके हुए थे I
इन पंक्तियों में कवि की कविताई को जानने-परखने का प्रवेश-द्वार है I यहाँ एक साधारण और आम आदमी का वह चित-परिचित बिंब है जो भारतीय स्वप्न और यथार्थ को हूबहू हमारे सामने रख देता है।आजादी के बाद हमारी आंकाक्षा थी कि आम आदमी की आँखों की अपनी चमक लौटे। यह विडंबना है कि वह उल्लू की आँखों में तब्दील हो चुकी हैं । आदमी का उल्लू में तब्दील हो जाना विकास के उस यथार्थ का बयान है जहाँ वह बाह्य और अंतः दोनों से इस जनतंत्र में पिछड़ गया है । यह कविता भारतीय विकास की आंकाक्षा और उसके हनन की भले ही साधारण-सी कविता है किन्तु इसी साधारणता और संप्रेषणीयता के बल कवि आम आदमी से बतियाता है, उसकी माली हालत के बारे में बार बार बताकर उसे सोचने को मजबूर करता है ।
आज के जनतंत्र को आफिस की ये फाईले रोज रोज झूठलाती हैं । कवि बेचैन हो उठता है । दरअसल स्वतंत्रता के बाद की सारी कविताओं की मूल टोन भारतीय आजादी के स्खलन से उत्पन्न बेचैनी ही है । इस बेचैनी को भले ही हम कई तरहों से परिभाषित करें किन्तु सीधे-सीधे प्रजातंत्र की असफलता की ओर इशारा करता हैं जहाँ आम आदमी नगण्य हो चुका है और उसकी  पूछ-परख की गांरटी देनेवाली सारी इकाईयां बदचलनी पर उतर आयी हैं ।ये कविताएं ऐसे दौर में हर बेचैन मन की आवाज बन जाती हैं । कवि दावा नहीं करता कि साधारण जन में व्याप्त बेचैनी को आप कविता ही कहें ।चाहे तो कहें । कागज पर उतरे ये शब्द पाठक में निश्चित ही वह संवेदना जगाते हैं जहाँ साधारण से साधारण पाठक कह उठता है
‘मैं बहुत छोटा
और ये चेहरा-
बहुत बड़ा हो जाता है I
आफिस की ये फाईलें शीर्षक की ये पंक्तियाँ याद दिलाती हैं कि जनतंत्र के कार्य-व्यापार पर तैनात हर शख्स खुद को छोटा नहीं समझेगा, और जनता को बड़ा,तब स्वतंत्रता का स्वप्न पूरा नहीं हो सकेगा । कवि को साफ-साफ पता है कि इसके लिए स्वतंत्रता को एक ही अर्थ से देखना होगा । स्वतंत्रता हर कवि की प्रथम आंकाक्षा होती है । सच्चे अर्थों में हर कवि स्वतंत्रता की आवाज बनकर प्रचलित राजनीति में अपना हस्तक्षेप करता है । सिर्फ सारे हालातों की तस्वीर रखकर नहीं मौसम की बदलाहट और मुक्ति का विश्वास दिलाते हुए-
‘मौसम  
फिर बदलेगा
मत हो निराश I
मुक्ति मार्ग
लम्बा है,बीहड़ है
झाड़ हैं,काँटें हैं I
दोस्ती की लगभग कविताएँ साधारण शिल्प में हैं । शायद इसलिए कि वे दोस्त जैसी सरल-तरल और सहज लगें । सहज भाव-भंगिमा की इन कविताओं के बाद प्रौढ़ कविताओं के साथ कवि जरूर हमारे समक्ष आयेंगे ।
 शुभकामनाओं के साथ....
                            जयप्रकाश मानस
संपादक, www.srijangatha.com
एफ-3, छगमाशिम, आवासीय परिसर, पेंशनवाड़ारायपुर, छत्तीसगढ़492001
मो.-94241-82664

पुस्तक:     दोस्ती(कविता-संग्रह)       मूल्य:       195 रुपये          लेखक:     विनोद पाराशर
प्रकाशक:   यश पब्लिकेशंस
                  1/10753,गली नं.3,सुभाष पार्क,
                  नवीन शाहदरा,कीर्ति मंदिर के पास,
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