रविवार, सितंबर 13, 2020

एक बैचैन रुह से साक्षाात्कर !

                     

साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है।यदि किसी विशेष काल-खंड के समाज को समझना है,तो यह आवश्यक है कि इस काल-खण्ड के साहित्य को पढ़ा जाये।इसी प्रकार किसी  लेखक की रचनाओं को यदि समझना है,तो अच्छा रहेगा कि उस लेखक के जीवन-मूल्यों,संघर्षों व जीवन परिस्थितियों  के बारे में पहले जान लिया जाये।लेखक के जीवन के संबंध में, यह जानकारी जुटाने के वैसे तो कई तरीके हैं,लेकिन सबसे अच्छा तरीका है उसका साक्षात्कार! किसी रचना को,सही तरीके से पकड़ना,व उसकी तहों को खोल पाना साक्षात्कार से संभव है।

वैसे तो साक्षात्कार को भी साहित्य की एक विधा ही माना गया है,लेकिन अन्य विधाओं की अपेक्षा इसमें काम बहुत कम हुआ है।हाल ही में,'इंडिया नेटबुक्स' द्वारा प्रकाशित वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रताप सहगल के साक्षात्कारों की एक पुस्तक आई है।इस पुस्तक में- प्रताप सहगल के कुल तेरह साक्षात्कार शामिल हैं।ये सभी साक्षात्कार,वर्ष,-1985 से 2015 के मध्य ,उनके कुछ वरिष्ठ, समकालीन या उनकी बाद की पीढ़ी के साहित्यकारों द्वारा लिए गये हैं।वैसे  तो सभी साक्षात्कार,पहले ही किसी साहित्यिक पत्र-पत्रिका में छप चुके हैं,लेकिन एक पुस्तक के रूप में,ये अब हमारे सामने आये हैं।

प्रताप सहगल अभी तक लगभग 55 वर्ष की अपनी अनवरत साहित्यिक यात्रा पूरी कर चुके हैं। इस दैरान,साहित्य की विभिन्न विधाओं में,उन्होंने 40 से अधिक पुस्तकों की रचना की है।साहित्य की हर विधा पर उनकी पकड है।देश के कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों  से उन्हें सम्मानित किया जा चुका है।ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति के जीवन व उसके लेखन को साक्षात्कारों के जरिये समझना,एक आम पाठक व साहित्य के विद्यार्थी के लिये,उपयोगी होने के साथ साथ, रोचक भी है।

प्रताप सहगल के समकालीन व उनके मित्र,प्रख्यात व्यंग्यकार श्री प्रेम जनमेजय ने बडी ही रोचक शैली में उनका साक्षात्कार लिया है।प्रेम ने प्रताप सहगल से उनके बचपन,शिक्षा, नौकरी, शशि से उनके प्रेम-विवाह,दोस्तों के साथ उनके संबंध-जैसे व्यक्तिगत  विषयों तथा उनके साहित्यिक लेखन पर भी खुलकर सवाल पूछे हैं।सहगल ने भी उनके हर सवाल का बेबाकी से जवाब दिया हैं।

प्रताप का बचपन,दिल्ली की एक मजदूर बस्ती में बीता।उनके पिता स्वंय एक फैक्टरी में काम करते थे।मज़दूरों के जीवन से उनका सीधा नाता रहा।उन्होंने पढ़ाई के साथ-साथ,कारखानों में भी काम किया।निम्न मध्यवर्ग के जीवन संघर्षों को,न केवल उन्होंने बहुत नजदीक से देखा, बल्कि स्वंय भी झेला। संघर्षों  से अर्जितअनुभवों की आँच को ,उनकी रचनाओं में  साफ़ देखा जा सकता है।

दोस्तों के संबंध में, सहगल का कहना है -"दोस्तों से जिंदगी में बहार रहती है।अगर मैं किसी दोस्त से खफ़ा होता हूँ तो ज़रा व्यवस्थित मन से विचार करता हूँ कि आखिर मैं खफ़ा क्यों हूँ?ज्यादातर हम दोस्तों से इसलिए खफ़ा रहतेे हैं कि वे हमारी अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते। तब दुःख होता है लेकिन दुःख का कारण तो मेरी उम्मीद ही होती है न! फिर यह भी सोचता हूँ कि दोस्तों से भी उम्मीद न करूँ तो किससे करूँ?

प्रताप को किसी एक फ्रेम में नहीं बाधा जा सकता।जैसा उनका जीवन विविधताओं से भरा है,वैसा ही उनका लेखन है।जहाँ उन्हें खाने में विविध प्रकार के व्यंजन पसंद है, वहीं नई नई जगह घूमना भी पसंद है।एक जगह टिककर बैठना, उनके स्वभाव में नहीं है।यही हाल,उनके लेखन का है। वे कभी कवि, कभी कथाकार, कभी नाटककार,कभी आलोचक तो कभी बाल साहित्यकार के रूप में,एक नई कृति हमारे सम्मुख लेकर आ जाते हैं।

प्रेम ने जब उनसे इस वैविध्य का कारण पूछा, तो प्रताप का कहना था कि- वे स्वयं को किसी एक फ्रेम में बांधकर नहीं रख सकते।वे एक बैचेन रूह हैं ,जो एक विधा से दूसरी और दूसरी से तीसरी में आवाजाही करती रहती है।इससे ताज़गी बनी रहती है और वैविध्य भी।

लेखन,साहित्यिक सरोकार और वैचारिक प्रतिबद्धता के संबंध में, सहगल का मानना है कि लेखन में उन्हें आनन्द आता है और आनन्द एक ऐसा पुरस्कार है,जिसके सामने सब बेमानी है।वे अपने अनुभवों को शब्दों के माध्यम से विस्तार देते हैं।वे मानते हैं कि जीवन किसी भी विचारधारा से बड़ा है।लेखन में विचार,किन्ही परिस्थितियों में रखकर ही हो सकता है।


युवा कवि व व्यंग्यकार लालित्य ललित द्वारा लिया गया साक्षात्कार भी इस पुस्तक में शामिल है।ललित ने प्रताप से विभिन्न विधाओं में लिखे गये उनके साहित्य पर सवाल पूछे।जब सहगल से पूछा गया कि उन्होंने कविता, नाटक,कथा,आलोचना, कहानी, उपन्यास व यात्रा संस्मरण-सभी में अच्छा लिखा है, तो वे स्वयं को किस विधा में अधिक निपुण मानते हैं? उनका कहना था कि वह स्वंय को सिर्फ़ एक लेखक मानते हैं।उन्हें विषय के अनुरूप विधा की ज़रूरत  महसूस होती है, उस विधा को वे चुन लेते हैं।यह कहना कि वह फलां विधा में निपुण हैं और फलां में नहीं, कुछ अटपटा सा लगता है।फिर भी उन्हें एक नाटककार के तौर पर ज्यादा जाना जाता है।लेखक की पहचान के संबंध में उनका कहना है कि जब तक कोई लेखक जिंदा रहता है, उसकी पहचान बदलती रहती है।नाटक सर्वाधिक जनतांत्रिक विधा है,जो मंच के माध्यम से लोगों तक सीधा पहुँचता है।नाटक जब मंच पर आता है तो आप जल्दी पहचाने जाते हो।

डॉ गुरचरण सिंह ने प्रताप के विभिन्न साहित्यिक विधाओं में लिखे गये  उनके सहित्य पर काफी विस्तार से बातचीत की है।जब  उनकी रचनाओं में  कहीं पर भी ग्रामीण परिवेश न दिखाई देने पर सवाल किया  गया तो प्रताप का कहना था कि उनका संघर्ष शहर से जुड़ा है, गाँव से नही,इसलिए रचनाओं में गाँव कहाँ से आयेगा? आयेगा तो झूठा आयेगा।

प्रताप की कविताओं का मूल स्वर-विरोध व विद्रोह है,लेकिन रचना के अंत में यह ठंडा पड़ जाता है या वे समझौते की ओर अग्रसर हो जाते हैं।डॉ गुरचरण सिंह ने जब इसका कारण जानना चाहा, तो सहगल ने बताया कि उनकी कविताएं-आम जनमानस की कविताएँ हैं।आम आदमी की चारित्रिक बनावट  ही ऐसी है कि वह दूसरे के कंधे पर चढ़कर विद्रोही दिखना चाहता है या विद्रोह करता है,तो कुछ सुविधाएं मिलते ही,विद्रोह समझौते में बदल जाता है,ऐसे में ठंडापन तो आयेग ही।इसी बात की अभिव्यक्ति उनकी रचनाओं में मिलती है।

हर लेखक की अपनी रचना-प्रक्रिया होती है।कोई रचनाकार किसी नियत समय पर ही अपना रचना कर्म करता है, तो कोई कभी भी  लिख लेता है। इस संबंध में प्रताप का कहना है कि उनके लेखन का कोई नियत समय नहीं है।लेखन के लिए अध्य्यन व सूक्ष्म दृष्टि की जरूरत होती है ।कविता कब आकर लेने लगती है,इसके पीछे का  कोई तर्क उन्हें अभी तक समझ नहीं आया।शब्दों में ढलते ढलते रचना के कई प्रारूप बनते-मिटते रहते हैं,लेकिन कागज़ पर आने के बाद कई बार वह प्रारूप अंतिम हो जाता है।लेखन हो या कोई अन्य कला,उसके लिए प्रकृत प्रतिभा को वे  पहली शर्त मानते हैं।बिना इसके केवल ज्ञान-विज्ञान,अभ्यास व अनुभव से कोई रचना नहीं की जा सकती

साहित्यिक जगत में जीवित रहने व उसमें ख्याति प्राप्त करने के लिए,आजकल कुछ लेखक किसी राजनीतिक विचारधारा/पार्टी से जुड़ जाते हैं।साहित्य और राजनीतिक विचारधारा के सम्बंध में प्रताप का मानना है कि तत्कालिक ख्याति प्राप्त करने के लिए, राजनैतिक दल के प्रश्रय में चलने वाले लेखक एवं कला मंचो से जुड़ाव,प्रसिद्ध होने में मदद करता है, पर ऐसी ख्याति दीर्घकालिक नहीं होती।दीर्घजीवी तो लेखक का रचनाकर्म ही होता है।इसी प्रकार धर्म के संबंध में सहगल की मान्यता है कि साहित्य धर्म से परिचालित नहीं होता।सम्बन्धों की जिन बारीकियों व उलझनों का धर्म निषेध करता है,साहित्य की यात्रा,सृजन की प्रक्रिया वहीं से शुरू होती है।

सहगल लम्बी कविता धारा के एक महत्वपूर्ण रचनाकार है।कुछ लेखक कविता को केवल कविता मानते हैं, वह उसे छोटी या लम्बी कविता के खाने में नहीं रखते।युवा आलोचक चन्दन कुमार ने  जब इस पर उनसे बात की,तो उनका कहना था कि लघु या छोटी कविता मात्र एक क्षण के अनुभव को पकड़ती है वही लम्बी कविता एक विकासशील माध्य्म है।किसी भी तरह की कोई शास्त्रीय जकड़न स्वीकार नहीं करती।लम्बी कविता पाठक को कई स्तरों पर अपने साथ जोड़ती है व उद्वेलित करती है

साहित्य में भी कुछ लोग जोड़ तोड़ के बल पर,सफलता प्राप्त करना चाहते हैं।ऐसे लोगों के लिए सहगल की सलाह कि जोड़-तोड़ की राजनीति आपको नौकरी दिलवा सकती है, पुरस्कार भी दिलवा सकती है,आप में यदि प्रतिभा है,तो उसका परिष्कार भी कर सकती है, प्रतिभा नहीं है तो पैदा नहीं कर सकती और न ही जोड़ तोड़ करके कोई रचना पैदा होती है।जोड़ तोड़ आदमी के अंदर छिपी चालाकी का नाम ही तो है।अगर मौजूद पीढ़ी के कुछ लोग मात्र जोड़ तोड़ से ही रचनात्मकता प्राप्त करना चाहते हैं,तो यह संभव नहीं है।जोड़ तोड़ तो ,दरअसल प्रतिभा के ताबूत पर गड़ी हुई कील है।

डॉ शकुंतला कालरा ने, सहगल के बचपन, किशोरावस्था के संघर्ष तथा उनके बाल साहित्य पर विस्तार से बातचीत की है।प्रताप का बाल्यकाल  व किशोरावस्था काफी कष्टपूर्ण रहा।उनका परिवार विभाजन के बाद,लुटा-पीटा भारत आया था।उनके पिता आर्यसमाजी थे।आर्यसमाज की विचारधारा का प्रभाव, बचपन में उनपर भी पड़ा।प्रश्न उठाना और तर्क करना उन्होंने उसी से सीखा।किशोरावस्था में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भी जुड़े,लेकिन कुछ समय बाद उससे भी  मोह भंग हो गया।वाम विचारधारा का प्रभाव भी उनपर पड़ा।सहगल का मानना है कि कोई भी विचारधारा मानवता से बड़ी नहीं हो सकती।अपने विद्यार्थी जीवन में,पढ़ाई में,वे शुरू से ही मेघावी रहे।लेखन की शुरुआत भी 1961 में एक कहानी 'बेकर' से हुई,जो उस समय के अखबार'वीर अर्जुन'में प्रकाशित हुई।वर्ष-1962-63 में,उन्हें अपने स्कूल से निकलने वाली पत्रिका'दीवार' का छात्र संपादक बनाया गया।उसके बाद'ज्ञान-वाटिका' का सम्पादन भी उन्होंने किया।विद्यार्थी जीवन में बच्चन, मीर,ग़ालिब, दाग़ और फ़िराक की कविताओं से वे काफ़ी प्रभवित हुए।

सहगल ने बाल साहित्य भी काफी लिखा है।उनके तीन बाल नाटक व एक बाल कहानी संग्रह अभी तक प्रकाशित हो चुके हैं।उनका यह भी कहना है कि जितना बाल साहित्य अभी तक प्रकाशित हुआ है,उससे कहीं अधिक अप्रकाशित पड़ा है।बड़ो के नाट्य-लेखन व बच्चों के नाट्य लेखन में अंतर को स्प्ष्ट करते हुए,उन्होंने कहा कि बच्चों के लिए नाटक में एक ऐसे संसार की रचना जरूरी है, जहाँ, उनकी कल्पना को पंख लग सकें,उनके अंदर बैठा मासूम कलाकार सामने आ सके,बच्चा पहले से थोड़ा स्याना होकर लोटे।बाल नाटक में,विचारधाराओं के घमासान की अपेक्षा भाव,गुण व मूल्यों की सार्थकता पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

इसके अलावा अन्य साहित्यकार, जिन्होंने साहित्य से जुड़े कुछ गंभीर सवाल प्रताप के सामने रखे,उनमें शामिल हैं-ज्योतिर्मय आनंद, चंदन कुमार,डॉ कीर्ति केसर,सीमा भारती, भावना शुक्ल, त्रिपुरारी कुमार शर्मा, नूर ज़हीर और  युवा कवि व पत्रकार मज़ीद अहमद।

पुस्तक का कवर बहुत ही आकर्षक है।एक-दो जगह रह गयी भाषागत त्रुटि को यदि छोड़ दिया जाये,तो कवि,नाटककार,कथाकार, आलोचक और बाल साहित्यकार प्रताप सहगल के  व्यक्तित्व व लेखन को समझने के लिए,यह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है।

पुस्तक: मेरे साक्षात्कार(प्रताप सहगल)

प्रकाशक:इंडिया नेटबुक्स

सी-122,सै-19

नोएडा-201301

गौतमबुद्ध नगर(एन. सी.आर.दिल्ली)

मूल्य:₹200.00(पेपर बैक)

        ₹250.00(हार्ड बॉन्ड)




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